भीड़ के आगे बेबस कानून

देश में जिस तरह से भीड़ के 'न्याय' की संस्कृति चल पड़ी है और लोगों को पीट-पीट कर मौत के घाट उतारने की बर्बर घटनाएं सामने आ रही हैं, वह चिंताजनक तो है ही, एक लोकतांत्रिक और सय राष्ट्र के लिए शर्मनाक भी है। इस तरह की घटनाओं का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे साफ है कि देश में कानून-व्यवस्था का कोई मतलब नहीं रह गया है। उन्मादी जंगल राज कायम कर रहे हैं और सरकारें चुपचाप देख रही हैं। इस तरह की घटनाएं कानून-व्यवस्था बनाए रखने का दावा करने वाली सरकारों के लिए किसी कलंक से कम नहीं हैं। तीन दिन पहले बिहार के छपरा और वैशाली जिले में भीड़ ने जिस तरह से चार लोगों को पीटपीट कर मौत के घाट उतार दिया, उससे साफ है कि पुलिस और प्रशासन ऐसी घटनाओं को रोक पाने में एकदम नाकाम साबित हुआ है। छपरा जिले के एक गांव में जिन तीन लोगों को गांव वालों ने मार डाला, उन परमवेशी चोरी का आरोप था, जबकि वैशाली में जो युवक मारा गया उसके बारे में कहा गया है कि वह बैंक लूटने आया था। पिछले ह ते ही राजस्थान के अलवर जिले में मामूली-सी घटना के बाद एक मोटर साइकिल सवार को भीड़ ने मार डाला था। सवाल यह है कि या भीड़ कानून को अपने हाथ में इसलिए ले रही है कि उसे कानून के शासन में, पुलिस तंत्र में, न्याय प्रणाली में कोई भरोसा नहीं रह गया है? या ऐसा करने वालों में कानून का कोई खौफ नहीं रह गया है? अगर ऐसा है तो यह वाकई कानून के शासन के लिए बड़ी और खुली चुनौती है। भीड़ के हाथों अब तक जितनी भी हत्याएं हुई हैं, उनमें ज्यादातर मामले बच्चा चोरी, पशु चोरी जैसी घटनाओं से जुड़े हैं। पिछले तीन साल में सबसे ज्यादा सक्रिय गोरक्षक हुए और गोरक्षा के नाम पर कई 'गोतस्कर' मौत के घाट उतार दिए गए। बिहार गुजरात, राजस्थान, उार प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में ये घटनाएं ज्यादा ज्यादा सवाल दर्ज हुई हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि 2010 से अब तक गोहत्या के शक में भीड़ के र हमले की 87 घटनाएं हुईं, जिनमें 34 लोग मारे गए लेकिन किसी भी मामले में अब तक कोई ऐसी सत कार्रवाई होती नहीं दिखी जिससे कानून हाथ में लेने वालों को कड़ा संदेश जाता । जाहिर है, सरकारों के इस लचर रवैए से तो ऐसा करने वालों का दुस्साहस औरबढ़ेगा ही! भीड़ हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर संज्ञान लेते हुए पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि हर जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के एक अधिकारी की नियुक्ति की जाए, खुफिया सूचनाएं जुटाने के लिए विशेष कार्य बल बनाए जाएं जो सोशल मीडिया में चल रही गतिविधियों सिर्फ पर पैनी भी नजर रखें। सर्वोच्च अदालत ने भीड़ तंत्र' से निपटने के लिए सरकार को कानून बनाने को भी कहा था। लेकिन हुआ या? सुप्रीम कोर्ट न भी के आगे बेबस कानून TOP MATLIINCLI इन कमेटियों ने भारतीय दंड संहिता और आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर कानून को सत बनाने के सुझाव दिए, लेकिन हाल में केंद्र सरकार ने भीड़ हिंसा से निपटने के लिए कोई भी कानून बनाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया है कि राज्यों के पास पर्याहश्वत कानून हैं, वे सती से उन्हें लागू करें। लेकिन सवाल यह है कि केंद्र अपनी जिमेदारी से बच कैसे सकता है? यह तो गेंद राज्यों के पाले में डालने जैसा है। ऐसे भीड़ तंत्र की संस्कृति खत्म नहीं होने वाली। बीते समय में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी हैं कि भीड़ में शामिल लोगों के मन से सजा का भय खत्म हो गया है। इस स्थिति को पलटने के लिए प्रशासन को मजबूती से सवाल है कि या भीड़ कानून को अपने हाथ में इसलिए प्रणाली में कोई भरोसा नहीं रह गया है? कार्रवाई करने की जरूरत है। इसके साथ राजनीतिक नेतृत्व को भी हालात पर नियंत्रण करने के लिए आगे आना होगा। वहीं दूसरी तरफ इन घटनाओं के लिए सोशल मीडिया या वॉटसएप को जिमेदार ठहराना, वैसा ही है जैसे संदेश भेजने वाले के बजाय संदेश वाहक को निशाना बनाया जाए। ये सिर्फ संचार का जरिया हैं जहां नैतिकता का कोई खास मोल नहीं है। इस समय सरकार को सती के साथ यह संदेश देने की जरूरत है कि इन समय सरकार का सता क साथ यह सदश दन व माध्यमों का अशांति फैलाने या हिंसक घटनाओं को उकसाने के लिए माध्यम इस्तेमाल स्वीकार नहीं किया जाएगा और अगर कोई ऐसा करता पाया सम्पादकीय कानून 1 MATLIINCLI गया तो उसके ऊपर तुरंत कार्रवाई होगी। हालांकि, इंटरनेट पर ऐसे मैसेज फॉरवर्डेड होते हैं और ऐसे में इनको भेजने वाले अमूमन सजा से बच जाते हैं। इसके साथ ही ये एनक्रिहश्वटेड होते हैं सो इनके मूल स्रोत का पता लगाना भी मुश्किल होता है लेकिन इन मैसेज के आधार पर जो लोग अपराध को अंजाम देते हैं या भीड़ को भड़काते हैं, उन्हें तो आसानी से पहचाना और पकड़ा जा सकता है। इन लोगों पर तुरंत कार्रवाई करके भी मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को हतोत्साहित किया जा सकता है। हालां क कुछ राज्यों की पुलिस अफवाहें फैलाने के खिलाफ चेतावनी देने के लिए अभियान चलाती हैं। जहां तक ताजा घटनाओं का मामला है तो यह एक अच्छी बात हुई है कि महाराष्ट्र में पुलिस ने हमलावर भीड़ में शामिल कुछ लोगों को गिरतार किया है. भीड़ द्वारा कोई हिंसक घटना अंजाम दिए जाने के बाद अमूमन 'अज्ञात लोगों' के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली जाती है, लेकिन यह इससे आगे की कार्रवाई है। अब जरूरत है कि इस मामले में मजबूती से मुकदमा लड़ा जाए। आज सोशल मीडिया के जरिए फैलाई गई अफवाहों से असुरक्षा और भय का माहौल बन रहा है जो एक स्वतंत्र और खुले समाज के आदर्श के लिए खतरा है। इस आदर्श की रक्षा दो पहरेदारों से सुनिश्चित होती है राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन । यही वजह है कि ताजा हालात में जहां भीड़ सरकारों के लिए चुनौती बन रही है, इन्हें आगे बढ़कर हालात नियंत्रण में करने होंगे। फिर देश के अलग-अलग हिस्सों से भीड़ के हाथों लोगों की पीट-पीटकर हत्या के मामले सामने आने के बीच विशेषज्ञों का कहना है कि इन घटनाओं पर जल्द लगाम नहीं लगने वाली है। मुंबई के मणिबेन नानावटी महिला कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्ष डॉ. सिसिलिया ने लोगों की जान लेने पर इसलिए ले उ उतारू भीड़ की मानसिकता के बारे में कहा है कि देश 'सामूहिकतावादी और व्य ितवादी सूक्ष्म संस्कृतियों ' का मिलाजुला रूप है। भीड़ हत्या की घटनाओं पर जल्द लगाम नहीं लगने वाली, योंकि समाज साा का भूखा और भावनात्मक तौर पर उदासीन' है। ___ हम उदासीन समाज हैं। हम ऐसी संस्कृति हैं जो दिखाती है कि मैं तुमसे बड़ा हूं, मेरे पास तुमसे ज्यादा ताकतवर चीजें हैं। वह ताकतवर या अहम चीज सकारात्मक या नकारात्मक कुछ भी हो सकती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, सोशल मीडिया साइटों तक आसान पहुंच ने लोगों में किसी का दुख देखकर खुश होने की प्रवृति बढ़ा दी है और लोग चाहने लगे है कि वे किसी 'खबर' को सबसे पहले दिखाएं या बताएं। हालात को बद से बदतर होने से रोकने की बजाय लोग या तो तमाशबीन बने रहते हैं या हिसा कर रही भीड़ में शामिल हो जाते हैं। हर शस हर चीज का हिस्सा बनना चाहता है। यही वजह भीड़तंत्र को बढ़ावा दे रही है